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अलविदा बब्बर : उत्तराखंड आंदोलन का वह ‘गोरखा योद्धा’ जिसके पूर्व संघर्ष से भारतीय नोट पर आई ‘नेपाली भाषा‘

देहरादून। यह साल-1971 था। तारीख थी 28 नवंबर। भारत-पाक युद्ध अपने चरम पर था। करीब 34 साल का एक गोरखा जवान पूरी बहादुरी से दुश्मन से लड़ता है। तभी दुश्मन की गोली उसके हाथ और पैर को बुरी तरह भेद देती हैं। हाथ और पैर हमेशा के लिए खराब हो जाते हैं। सेना से मेडिकल ग्राउंड पर सेवानिवृत्ति दे दी जाती है। स्थाई विकलांगता लिए यह गोरखा जवान घर तो लौट आता है, लेकिन कमजोर कभी नहीं होता। सरहद का प्रहरी वह अब खुद को समाज के लिए झोंक देता है। यह उसकी जीवटता, संकल्प और संघर्ष का ही प्रतिफल है कि आज नेपाली भाषा न केवल भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची का हिस्सा है, बल्कि भारतीय करेंसी (नोट) पर भी दर्ज है।

राज्य आंदोलन की नेतृत्वकारी पंक्ति में रहे बब्बर गुरुंग ने देहरादून में ली अंतिम सांस

यह गोरखा योद्धा कोई और नहीं, प्रखर उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी बब्बर गुरुंग थे। 87 वर्ष की उम्र में बब्बर गुरुंग ने बुधवार देर रात देहरादून कैंट के टपकेश्वर (शेरबाग) मार्ग स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। वे पिछले कुछ वर्षों से बीमारी के चलते बेड पर थे। बब्बर अपने पीछे एक पुत्र और पुत्री का भरपूरा परिवार छोड़ गए हैं। उनका पुत्र भी सेना में सेवारत है। बब्बर गुरुंग की पत्नी शकुन गुरुंग का कैंसर की वजह से पिछले वर्ष निधन हो गया था। शकुन भी उत्तराखंड आंदोलन में अग्र पंक्ति में रहीं और गोरखा समाज की महिलाओं को राज्य आंदोलन में जोड़ने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

हिमाचल में 1937 में हुआ जन्म, महज 16 साल में सेना में हो गए थे भर्ती

बब्बर गुरुंग का जन्म 12 जून 1937 को हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में स्थित बकलोह कैंट में संतराम गुरुंग के घर हुआ था। बब्बर को शिक्षा के अलावा संगीत और साहित्य में भी गहरी रुचि थी। 16 साल की उम्र में हाईस्कूल पास करने के बाद वे 30 अक्तूबर 1953 को गोरखपुर में 5/5 जीआरओ में भर्ती हो गए थे। नवंबर-1969 में उनकी शादी देहरादून के गढ़ी कैंट निवासी शकुन से हुई। सेना से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने कुछ समय एमईएस में भी बतौर क्लर्क सेवा दी।

गोरखा समाज को संगठित रूप से उत्तराखंड आंदोलन में जोड़ा, सपत्नीक रहे हर गतिविधि का हिस्सा

साल-1994 में उत्तराखंड आंदोलन ने प्रचंड रूप लिया तो देहरादून का गोरखा समाज भी संगठित होकर उसमें भागीदार बना। उससे पूर्व गोरखा समाज से सिर्फ कैप्टन जेबी कार्की ही उत्तराखंड क्रांति दल के पदाधिकारी होने के नाते मुख्यतः सक्रिय थे। 1994 में आंदोलन ने जोर पकड़ा तो बब्बर गुरुंग ने अपने संगठन गोरखा मोर्चा के साथ देहरादून ही नहीं, उत्तराखंड के गोरखाली समाज को आंदोलन से जोड़ा। एक हाथ और एक पैर खराब होने के बावजूद बब्बर गुरुंग आंदोलन का नेतृत्व करने वालों में सबसे आगे रहते थे। यही वजह रही कि देहरादून में पूर्व विधायक रणजीत सिंह वर्मा के संयोजन वाली जिलास्तरीय संघर्ष समिति की कोर कमेटी में तो वे शामिल रहे ही, पर्वतीय गांधी इंद्रमणि बडोनी के संरक्षण वाली उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति की केंद्रीय कमेटी में भी उन्हें प्रमुखता से स्थान दिया गया। बब्बर गुरुंग ने पत्नी शकुन गुरुंग और गोरखा समाज को साथ लेकर उत्तराखंड आंदोलन की हर छोटी-बड़ी गतिविधि में सक्रिय और नेतृत्वकारी भागीदारी निभाई। वे जेल गए। लाठियां खाई। बंद-चक्का जाम कराया। रैलियां निकलीं। दफ्तरों में ताले ठोके। धरना दिया। पिकेटिंग की। रेल रोकी। पदयात्रा की। अनशन किए। चुनाव बहिष्कार के लिए जूझे। केंद्र सरकार से वार्ता हुई, तो उसमें शामिल रहे। यानी, हर गतिविधि का वे हिस्सा रहे।

गोली लगे पैर से लचकते हुए की देहरादून से दिल्ली तक पदयात्रा, जंतर-मंतर पर 27 दिन अनशन

उत्तराखंड में ‘मौनी बाबा’ के रूप में प्रसिद्ध रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की सरकार का मौन जब नहीं टूटा तो बब्बर गुरुंग ने सीधे दिल्ली जाकर उसे झकझोरने का फैसला किया। नवंबर-1995 की बात है। संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था। बब्बर गुरुंग ने देहरादून से दिल्ली तक पदयात्रा करने और आमरण अनशन पर बैठने का ऐलान कर दिया। उनका पैर खराब होने और बढ़ती सर्दियों के कारण संघर्ष समिति के कुछ नेताओं ने उनसे अपने फैसले पर पुनर्विचार का आग्रह किया। किंतु, बब्बर संकल्प ले चुके थे। लिहाजा टस से मस नहीं हुए। अंततः उन्हें साथ मिला वयोवृद्ध सेवानिवृत शिक्षणेत्तर कर्मचारी नेता स्व. चंद्रमणि नौटियाल का। बब्बर और चंद्रमणि की पदयात्रा शुरू हुई। छड़ी के सहारे अपने लचकते पैर (1971 में लगी पाक सेना की गोली ताउम्र उनके पैर में धसी रही) से बब्बर गुरुंग ने देहरादून से दिल्ली तक की पदयात्रा पूरी की और सह पदयात्री चंद्रमणि नौटियाल के साथ जा पहुंचे जंतर मंतर। जंतर मंतर पर पहले से ही दिल्ली के दो राज्य आंदोलनकारी अनशन कर रहे थे। 25 नवंबर 1995 से 27 दिन तक बब्बर गुरुंग और चंद्रमणि अनशन पर रहे।

अंतिम वर्षों में सरकारों और साथियों की उपेक्षा का दंश झेलने को हुए मजबूर 

राज्यंदोलन के दौर में ही बब्बर गुरुंग उत्तराखंड क्रांति दल से भी जुड़ गए थे। उन्हें उक्रांद में गोरखा प्रकोष्ठ का केंद्रीय अध्यक्ष बनाया गया। दल की केंद्रीय कार्यकारिणी में भी वे लंबे समय तक विभिन्न पदों पर रहे।राज्य बनने के बाद वे उक्रांद और अपने गोरखा मोर्चा के बैनर तले राज्यहित के तमाम मुद्दों पर संघर्षरत रहे। पिछले कुछ वर्षों से गंभीर बीमार व बेड पर होने और पत्नी शकुन के कैंसरग्रस्त हो कर मृत्यु के बावजूद दुखद यह रहा कि उत्तराखंड की सरकार तो दूर कुछेक अपवाद को छोड़ कर आंदोलन के दौर के उनके साथी नेताओं, खासकर उक्रांद तक ने उनकी सुध नहीं ली। विडंबना यह कि उनका बतौर आंदोलनकारी सरकारी रिकॉर्ड में चिहनीकरण भी काफी मशक्कत के बाद हो पाया।

नेपाली भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए की कठोर प्रतिज्ञा, लंबे संघर्ष के बाद पाई विजय

बब्बर गुरुंग ने सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद नेपाली भाषा और भारतीय गोरखा समाज के उत्थान के लियेबखुद को समर्पित कर दिया। अखिल भारतीय नेपाली भाषा समिति के संस्थापक अध्यक्ष के नाते 1970 के दशक के उत्तरार्ध में उन्होंने नेपाली भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए संघर्ष शुरू किया। उत्तराखंड और हिमाचल के साथ ही दार्जिलिंग, सिक्किम आदि कई क्षेत्रों में गोरखा समाज की बड़ी तादाद है, जिसकी भाषा नेपाली है। 1979 में बब्बर गुरुंग ने भाषा आंदोलन को देशभर में विस्तार देने के लिए तत्कालीन उत्तर प्रदेश का अंग रहे देहरादून में गोरखा समाज की बड़ी बैठक बुलाई। उन्होंने संकल्प लिया कि जब तक नेपाली भाषा को 8वीं अनुसूची में शामिल करने संबंधी मांग पूरी नहीं होगी, वे बाल नहीं कटवाएंगे और ‘शेव’ नहीं कराएंगे। उन्होंने एक दशक तक अपने बाल और दाढ़ी नहीं कटवाई। उनके नेतृत्व में जुलूस, प्रदर्शन, अनशन, साइकिल यात्रा, पदयात्रा समेत लंबे भाषा आंदोलन के बाद और सिक्किम की तत्कालीन सांसद दिल कुमारी भंडारी के हस्तक्षेप के बाद अगस्त-1992 में संसद में नेपाली भाषा को भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में जोड़ने संबंधी फैसले को मंजूरी मिल गई। उसी साल नवंबर में नेपाली को भारतीय रूपये में भी अंकित करने की शुरुआत हुई। तब से नोट के पीछे छपी 15 भाषाओं के बीच नेपाली में भी रकम लिखी जा रही है। यह मांग पूरी होने के बाद समिति को अखिल भारतीय स्तर पर भंग कर दिया गया, लेकिन उत्तराखंड में बब्बर गुरुंग ने नेपाली भाषा समिति का अस्तित्व बरकरार रखा। वे इसके संरक्षक रहे और समिति के बैनरतले भी विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करते रहे।

संसद परिसर में शहीद दुर्गामल्ल की प्रतिमा स्थापना से लेकर डाक टिकट जारी करवाने की मुहिम का भी रहे हिस्सा

देहरादून के डोईवाला निवासी आजाद हिंद फौज के मेजर शहीद दुर्गामल्ल (जिन्हें अंग्रेजों ने अगस्त-1944 में फांसी दे दी थी) को यथोचित सम्मान दिलाने और उनकी स्मृतियों को जीवंत रखने के लिए भी बब्बर गुरुंग गोरखा समाज के साथ निरंतर संघर्षरत रहे। यह उनके और गोरखा समाज के समवेत संघर्ष का ही परिणाम है कि साल-2004 में तत्कालीन सरकार ने शहीद मेजर दुर्गामल्ल की प्रतिमा को संसद परिसर में स्थापित किया। बब्बर की नेपाली भाषा समिति और स्थानीय गोरखा समाज के प्रयासों से साल-2019 में शहीद मेजर दुर्गामल्ल पर डाक कवर और पिछले वर्ष (2023 में) डाक टिकट भी जारी किया गया।

गढ़वाली-कुमाऊनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए संघर्ष के रहे प्रबल पक्षधर

बब्बर गुरुंग को अनेक संस्थाओं ने उनके बहुआयामी योगदान के लिए सम्मानित किया। वे गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराए जाने के लिए संघर्ष के प्रबल पक्षधर थे। नवंबर-2022 में उत्तरांचल प्रेस क्लब की तत्कालीन कार्यकारिणी ने उन्हें उनके घर जाकर सम्मानित किया था। इस दौरान उन्होंने अपनी यह वेदना जाहिर करते हुए कहा था कि आप लोग गढ़वाली-कुमाऊनी को 8वीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए क्यों संघर्ष नहीं कर रहे? बोले, मैं लंबे समय से बेड पर हूं, वरना इसके लिए अनशन जरूर करता। भाषा के लिए आंदोलन करोगे तो सफलता भी मिलेगी।

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