सुशीला बलूनी का निधन: मौन हुई उत्तराखंड के हितों की मुखर आवाज
देहरादून। उत्तराखंड राज्य आंदोलन की प्रखर नेता और राज्य महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष सुशीला बलूनी का निधन हो गया है। मंगलवार देर शाम यहां उन्होंने मैक्स अस्पताल में अंतिम सांस ली। वे पिछले लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं। मूलरूप से उत्तरकाशी जनपद की निवासी सुशीला बलूनी अधिवक्ता भी थीं। उनकी अंतिम यात्रा बुधवार को डोभालवाला स्थित आवास से निकलेगी।
1994 के आंदोलन में अनशन पर बैठने वाली पहली महिला
9 अगस्त 1994 को देहरादून कलेक्ट्रेट में आमरण अनशन करने वाली वे उस दौर के राज्य आंदोलन (1994) की पहली महिला थीं। पर्वतीय गांधी इंद्रमणि बडोनी के नेतृत्व वाली उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के केंद्रीय संयोजक मंडल की सदस्य होने के साथ ही वे उत्तराखंड आंदोलन में महिलाओं की केंद्रीय संघर्ष समिति की संयोजक भी रहीं। अनेक बार जेल यात्राएं करने के अलावा वे लाठीचार्ज में घायल हुईं। मुजफ्फर नगर के रामपुर तिराहा पर 2 अक्तूबर 1994 की सुबह हुए जघन्य कांड के विरोध में आंदोलन का संचालन करने वाली वे प्रमुख महिला नेत्री थीं। जनता दल, उत्तराखंड क्रांति दल के बाद वे पिछले ढाई दशक से भाजपा में थीं। राज्य आंदोलन में वे 1994 से पूर्व उस दौर में भी सक्रिय रहीं, जब यह राज्य के नामलेवा चांद लोग ही हुआ करते थे।
ऐसा संघर्षशील व्यक्तित्व, सभी करते थे जिसका सम्मान
राजनीति का ककहरा उन्होंने स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा से सीखा था। सुशीला बलूनी उत्तराखंड और खासकर देहरादून में राजनीति की वह सख्शीयत थीं, जो किसी भी दल में रही हों, मगर उन्हें सम्मान देने वाले हर दल में रहे। काफी उम्रदराज होने के बावजूद वे हर संघर्ष में अग्रणी रही हैं। हालांकि, राजनीतिक रूप से उन्हें वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वे हकदार थीं। 1996 में निर्दलीय और 2002 में उक्रांद के टिकट पर वे विधानसभा का चुनाव लड़ीं, मगर सफलता नहीं मिली। 1989 में वे देहरादून नगर पालिका की सदस्य भी रहीं। वे जनता दल की नगर अध्यक्ष भी रहीं। साल-2003 में देहरादून नगर निगम के पहले चुनाव में वे मेयर का चुनाव भी लड़ीं, लेकिन सफलता नहीं मिली। वे भाजपा सरकारों के समय राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद और राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष भी रहीं। उनके निधन से समूचे उत्तराखंड में शोक की लहर है।