…जब 36 साल पूर्व लोकसभा की दर्शकदीर्घा से पहली बार हुई थी ‘उत्तराखंड’ की गूंज, पर्चे फेंकते हुए कूदे थे त्रिवेंद्र
देहरादून। बुधवार को संसद में नारों की गूंज के साथ जो घटनाक्रम घटित हुआ, वह निंदनीय है। निंदनीय इसलिए, क्योंकि उसके पीछे ‘शांति’ नहीं, ‘अशांति’ थी। उसके पीछे अहिंसा नहीं, हिंसा का अक्श उभरता है। लेकिन, इस घटना ने ठीक 36 साल पहले घटित एक घटना की याद ताजा करा दी। वह घटना, जो लोकसभा की दर्शकदीर्घा से ही जुड़ी थी। लेकिन, थी पूरी तरह शांतिपूर्ण और अहिंसक। संसद में घटित उस घटना ने पहली बार देश ही नहीं, दुनिया का ध्यान ‘उत्तराखंड राज्य’ की मांग की ओर खींचा था। इसके बाद भी कई मर्तबा संसद की दर्शकदीर्घा और गैलरी से ‘उत्तराखंड’ की गूंज हुई, लेकिन रास्ता हमेशा ‘गांधीवादी’ ही रहा।
उक्रांद नेता ने 23 अप्रैल 1987 को पृथक राज्य की मांग के प्रति खींचा था संसद और देश-दुनिया का ध्यान
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में दर्ज साल-1987 की यह खास तरीख थी 23 अप्रैल। लोकसभा की कार्यवाही चल रही थी। बलराम जाखड़ स्पीकर थे। तभी अचानक ‘जय उत्तराखंड’ और ‘आज दो अभी दो-उत्तराखंड राज्य दो’ के नारे लगाने के साथ ही एक युवक सदन में पर्चे फेंकते हुए लोकसभा की दर्शकदीर्घा से नीचे कूदता है। कुछ देर के लिए लोकसभा की कार्यवाही रूक जाती है। आनन-फानन में उस युवक को सुरक्षाकर्मी दबोचकर संसद मार्ग थाने ले जाते हैं। इधर, लोकसभा की कार्यवाही शुरू होते ही तत्कालीन वरिष्ठ सांसद मधु दंडवते ने युवक के फेंके पर्चों में उठाए गए मुद्दे पर गौर करने का आग्रह किया। दरअसल, यह युवक कोई और नहीं उत्तराखंड क्रांति दल के तेज-तर्रार युवा नेता त्रिवेंद्र सिंह पंवार थे। ऋषिकेश निवासी त्रिवेंद्र अब उम्रदराज हो चुके हैं। बाद के वर्षों में वे कई मर्तबा यूकेडी के केंद्रीय अध्यक्ष भी रहे हैं।
तब भय, अशांति या सनसनी फैलाना नहीं था मकसद, कृपाल सिंह सरोज पहले आ गए थे पकड़ में
त्रिवेंद्र कहते हैं कि हमारा मकसद न तो किसी तरह का भय या अशांति फैलाना था और न ही सनसनी फैलाना। हमारा मकसद गांधीवादी रास्ते से सिर्फ उत्तराखंड राज्य की मांग के प्रति देश की सर्वोच्च संस्था का ध्यान आकर्षित करना था। इसमें सफलता भी मिली। क्योंकि, इसके बाद संसद, सरकार के साथ ही देश-विदेश के मीडिया का ध्यान भी तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पर्वतीय अंचल की इस जायज मांग के प्रति गया। त्रिवेंद्र बताते हैं कि उनके साथ उक्रांद के संस्थापक सदस्यों में शामिल वरिष्ठ नेता कृपाल सिंह रावत सरोज भी थे, लेकिन चेकिंग के दौरान उनके पास मौजूद पर्चे सुरक्षाकर्मियों की नजर में आ गए और उन्हें हिरासत में ले लिया गया। 23 अप्रैल का दिन इसलिए चुना गया, क्योंकि यह ‘पेशावर कांड दिवस’ था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान इसी दिन वीर चंद्रसिंह गढ़वाली की अगुआई में पेशावर में निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर अंग्रेजों के फायरिंग के आदेशों की अवहेलना करते हुए गढ़वाली पलटन ने बगावत की थी। त्रिवेंद्र के अनुसार, वे और सरोज तत्कालीन केंद्रीय पेट्रोलियम राज्यमंत्री ब्रह्मदत्त के जरिए बने पास से संसद में प्रविष्ट हुए थे।
ठीक 7 महीने बाद धीरेंद्र ने दोहराया घटनाक्रम, 90 के दशक में मोहन-मनमोहन और ऊषा भी घुसे संसद में
23 अप्रैल 1987 से ठीक 7 महीने बाद 23 नवंबर 1987 को फिर एक बार संसद के भीतर दर्शकदीर्घा से उत्तराखंड राज्य की मांग की गूंज हुई। इस बार नारेबाजी करने वाले थे तत्कालीन लोकदल (अजित) के नेता धीरेंद्र प्रताप। राज्य आंदोलनकारी धीरेंद्र अब कांग्रेस का हिस्सा हैं। 1994 में उत्तराखंड आंदोलन पूरे उफान पर था, तो उस वर्ष 24 अगस्त को छात्र नेता मोहन पाठक और मनमोहन तिवारी राज्य की मांग को लेकर नारेबाजी करते हुए दर्शकदीर्घा से कूदे। साल-1996 में आंदोलनकारी नेता ऊषा नेगी भी अपनी साथियों समेत संसद की गैलरी में उत्तराखंड के समर्थन में नारेबाजी करते हुए गिरफ्तार हुईं।