टिहरी के ‘कम्युनिस्ट’ ने रची थी गढ़भाषा में लीला रामायण, दून में कराई आजतक की एकमात्र गढ़वाली रामलीला
देहरादून। वे जीवनभर कम्युनिस्ट रहेे। कम्युनिस्ट और धर्म के बीच एक दूरी मानी जाती है। धार्मिक आख्यानों-धर्म से जुड़ी गतिविधि से कम्युनिस्टों को आमतौर पर विरत ही देखा गया हैं। मगर, जिस कम्युनिस्ट की यहां बात हो रही, वह कई मायनों में अलग थे। वे ऐसे ‘पथिक’ थे, जो अंतिम सांस तक कभी रूके नहीं। आजादी पूर्व के संपन्न परिवार के ऐशो-आराम छोड़े। आजादी की जंग में कूदे। राजशाही के खिलाफ संघर्ष किया। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ निरंतर लड़े। समाज ने बहिष्कृत किया। हुक्का-पानी बंद किया। फिर भी अपनी राह चलते रहे। पूरा जीवन एक फकीर की मानिंद बिताया। फिर भी हालात से कभी हार नहीं मानीं। अनेक पुस्तकें लिखीं।
मगर, इन कॉमरेड की एक अलग पहचान बनी गढ़वाली भाषा में ‘लीला रामायण’ की रचना से। यह कॉमरेड गुणानंद पथिक ही थे, जिन्होंने मंचन के लिए रामायण को गढ़भाषा में ढाला। यह गुणानंद पथिक ही थे, जिन्होंने पूरे 14 साल तक हारमोनियम हाथ में थामकर गढ़वाली रामलीला के निर्देशन का बड़ा हिस्सा संभाला। देहरादून में आज तक ठेठ गढ़वाली बोली-भाषा में सिर्फ एक ही रामलीला का मंचन हुआ। वह भी पूरे 14 साल। दूनघाटी की इस एकमात्र गढ़वाली रामलीला के जरिए यहां के पर्वतीय समाज में नव-जागरण करने, उन्हें सांस्कृतिक-सामाजिक तौर पर एकजुट करने वाले मुख्य किरदार कॉमरेड गुणानंद पथिक ही थे। सिर्फ दून ही क्यों, उनकी रची गढ़वाली लीला रामायण के आधार पर पहाड़ के दूर-दराज क्षेत्रों तक रामलीला के मंच हुए और आज भी हो रहे हैं।
साथियों साथ मिलकर की ‘गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषद’ की स्थापना
यह 1970 का दशक था। तत्कालीन अविभाजित यूपी का यह उत्तराखंड क्षेत्र उपेक्षित था। देहरादून बहुत सीमित और जल्द सो जाने वाला शहर था। बावजूद इसके, देहरादून पहाड़ी जिलों की अपेक्षा विकसित माना जाता था। यहां की आबादी में गढ़वाली समाज का सबसे बड़ा हिस्सा था। किंतु, यह वह दौर था, जब अपनी बोली-भाषा, संस्कृति, अलग पहचान और एकजुटता के लिए दून के गढ़वाली समाज में छटपटाहट बढ़ रही थी। हालांकि, इससे पहले से गढ़वाली बोली-भाषा में काफी कुछ लिखा जा रहा था। नाटक, लोकनृत्य, गीत-संगीत सरीखी सांस्कृतिक विधाएं भी निरंतर गति पकड़ रही थीं। जीत सिंह नेगी, ठा. वीर सिंह, मनोहरलाल धस्माना, उर्मिल थपलियाल, भगवती प्रसाद पोखरियाल, शिव प्रसाद पोखरियाल, रामप्रसाद अनुज से लेकर रोशन धस्माना तक रंगमंच और संस्कृतिकर्म से जुड़े कई प्रमुख लोग उस दौर में पहाड़ के सांस्कृतिक पक्ष को मैदान में प्रभावी ढंग से समृद्ध करने में जुटे थे। फिर भी, अभी काफी कुछ किए जाने की जरूरत महसूस की जा रही थी। ऐसे में कॉमरेड गुणानंद पथिक एक धुरी बनकर उभरे।
पथिक काफी पहले ही तुलसी रामायण को गढ़वाली में स्थानीय परिस्थितियों और संस्कृति के अनुरूप मंचन के लिए ढालते हुए ‘गढ़भाषा लीला रामायण’ की रचना कर चुके थे। दोहे और चौपाइयों को गढ़वाली में तो लिखा ही गया, उनके लिए धुन और शैली भी ठेठ पहाड़ी लोकगीतों पर आधारित थीं। पथिक की अगुआई में दून में बसे गढ़वाली समाज के कई प्रमुख लोग रेसकोर्स नई बस्ती में मंथन के लिए बैठे और 4 अप्रैल 1977 को ‘गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषद’ की स्थापना की। तय किया गया कि परिषद सबसे पहले दूनघाटी में गढ़वाली भाषा में रामलीला का मंचन करेगी। साथ ही मंच पर सांस्कृतिक आयोजन भी किए जाएंगे।
23 नवंबर 1977 से पूरे 14 साल तक हुआ गढ़वाली में रामलीला मंचन
वह 17 नवंबर 1977 का दिन था। परिषद ने उस दिन पहले पहल रामायण के कुछ प्रमुख प्रसंगों का मंचन गढ़वाली बोली-भाषा में चुनिंदा लोगों के बीच किया। यह एक दिवसीय आयोजन काफी सफल रहा। इससे उत्साहित पथिक और परिषद के पदाधिकारियों ने 10 दिवसीय रामलीला मंचन की आधिकारिक घोषणा कर दी। 23 नवंबर 1977 की रात। दूनघाटी में उन दिनों नवंबर काफी ठंडक भरा महीना होता था।

कंपकंपा देने वाली ठंड के बावजूद देहरादून नगर पालिका का जुगमंदर हॉल सैकड़ों स्त्री-पुरूषों और बच्चों से खचाखच भरा था। तभी आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा पहने बुजुर्ग गुणानंद पथिक की अंगुलियां हारमोनियम पर चलती हैं। मधुर स्वरलहरियां वातावरण में बिखरती हैं। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पर्दा खुलता है और सामने रामलीला मंचन के इतिहास की नई इबारत गढ़ने-नया इतिहास रचने की ओर कदम बढ़ चलते हैं। पहली बार 10 दिन यह आयोजन हुआ। अगले वर्ष यानी 1978 से यह आयोजन 12 दिन का हो गया। वह भी हॉल के अंदर नहीं, बाहर नगर पालिका मैदान में। पूरे 14 वर्ष दून की इस एकमात्र गढ़वाली रामलीला का सिलसिला चला। 1990 में 14वें वर्ष आखिरी बार रामलीला का यह मंचन करके इसे स्थायी तौर पर विराम दे दिया गया।
जानिए कौन थे सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध विद्रोही गुणानंद पथिक
टिहरी जिले की घनसाली तहसील की पट्टी है ग्यारहगांव-हिंदाव। इसी ग्यारहगांव पट्टी के गांव डांग-खसेती निवासी नारायण दत्त डंगवाल के घर साल-1913 में गुणानंद का जन्म हुआ। परिवार की आर्थिक हालत काफी अच्छी थी, लेकिन गुणानंद शुरू से ही विद्रोही स्वभाव के थे। उनके विद्रोही तेवर देखते हुए पिता ने उन्हें पढ़ाने से इनकार किया, तो महज 14 साल की उम्र में ही वे हरिद्वार चले गए। वहां अपने बूते पढ़ने का प्रयास किया। फिर लाहौर जाकर वहां भी अध्ययन किया। स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर जेल में कैद कर लिया। वहां से पुनः टिहरी लौटे और राजशाही के साथ ही छुआछूत, बाल विवाह, शराब जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। सामाजिक चेतना के प्रसार के उनके प्रयासों से नाखुश गांव वालों ने उन्हें बहिष्कृत कर दिया। टिहरी राज्य प्रजामंडल के संस्थापकों में भी वे शामिल रहे।
वे अपने गीतों के माध्यम से गांव-गांव जागरूकता के प्रसार में लगे रहे। विवाह के मामले में भी उन्होंने जातिप्रथा को तोड़ने का साहस उस दौर में किया, जब ऐसा सोच पाना भी बहुत मुश्किल था। बाद में उन्होंने अपनी पहचान पथिक के तौर पर बना ली और उन्हें गुणानंद डंगवाल के बजाय गुणानंद पथिक के तौर पर ही प्रसिद्धि मिली। गुणानंद पथिक 1970 के दशक में स्थानीय नेहरू कॉलोनी के एक छोटे से घर में आकर रहने लगे। साल-2000 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनके आखिरी दिन बेहद तंगहाली में गुजरे। इसके बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी। वैचारिक और कार्यकर्ता के तौर पर वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से ताउम्र जुड़े रहे, लेकिन भगवान राम के जीवन चरित को गढ़वाली बोली-भाषा में दून से लेकर पहाड़ के दूर-दराज इलाकों तक पहुंचाने में उनका अद्वितीय योगदान रहा।
निरंतर 14 साल तक ये रहे परिषद के पदाधिकारी
गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषद की एक खासियत यह भी रही कि जब तक उसने गढ़वाली रामलीला आयोजित की, तब तक उसके अधिकांश पदाधिकारी और किरदार यथावत रहे। पूरे 14 साल तक गुणानंद पथिक ने इसका निर्देशन संभाला। इस पूरे कालखंड में बीडी रतूड़ी (यूकेडी के पूर्व अध्यक्ष) परिषद के अध्यक्ष और गुरू प्रसाद उनियाल महासचिव रहे।
इसके अलावा सामाजिक कार्यकर्ता वीरेंद्र मोहन उनियाल, सुंदर सिंह रावत, बच्चीराम नौडियाल, चतर सिंह दुसाद, गोपालराम भट्ट, राकेश डोबरियाल, कलीराम पोखरियाल, नरेश रतूड़ी, पीतांबर दत्त नौटियाल, गोविंदराम रणाकोटी, चंडीप्रसाद बलोनी, नथीराम रणाकोटी, प्रेम सिंह नेगी, देवेश्वर प्रसाद रणाकोटी, हृदयराम जोशी, बुद्धि सिंह रावत, डॉ. गोविंद सिंह, दिनेश चंद्र मुंडेपी, उपेंद्र बिजल्वाण, नत्थीलाल सेमवाल, डॉ. आरपी रतूड़ी, जयकृष्ण थपलियाल, उमेश बंदूनी, विजय सिंह कैंतुरा, बच्चीराम नौटियाल, धर्मानंद कंसवाल, कृष्णानंद सकलानी, पुष्पेंद्र, कलम सिंह रावत, रामप्रसाद बलूनी आदि ने विभिन्न दायित्व संभाले। दरबार श्रीगुरूराम राय साहिब के महंत इंदिरेश चरण दास, दून के जाने-माने व्यवसायी गुणानंद पेटवाल, गोविंदराम उनियाल, राजनारायण तिवारी, ललिता प्रसाद बडोनी के साथ ही गोपाल सिंह रावत, रतन सिंह गुनसोला, ज्योति प्रसाद डोभाल, डीपी बिजल्वाण, हर्षमणि नौटियाल, गोपाल राम बहुगुणा, आईडी उनियाल, सूरत सिंह नेगी समेत अलग-अलग व्यवसायों से जुड़े प्रमुख लोग परिषद के संरक्षक मंडल में रहे। गोपालराम भट्ट ने पूरे 14 वर्ष इस रामलीला में रावण का किरदार निभाया।
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(साल-1983 में ‘गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषद’ की पुरानी टीम, स्व. गुणानंद पथिक और ‘गढ़भाषा लीला रामायण’ से संबंधित चित्र परिषद के पूर्व अध्यक्ष बीडी रतूड़ी और डांग-खसेती गांव व स्व. पथिक के पैतृक घर से संबंधित चित्र उनके भतीजे व पूर्व पार्षद गणेश डंगवाल के सौजन्य से)

