मिलिए, अंग्रेजों के जमाने के डॉक्टर से, जो 77 साल बाद आज भी नियमित रूप से देख रहे मरीजों को
देहरादून। आमतौर पर लोग 77 साल तक पहुंचते-पहुंचते थक जाते हैं। मगर, एक शख्स ऐसे भी हैं, जो शताब्दी का सफर तय करने के बावजूद न थके हैं-न रूके हैं। यही नहीं, वे पिछले 77 वर्षों से सुबह-शाम नियमित तौर पर क्लिनिक में बैठकर मरीजों को देखते हैं, उन्हें दवा देते हैं। साढ़े सात दशक से भी ज्यादा से नियमित रूप से क्लिनिक पर बैठने वाले डॉ. यूसी चांदना उत्तराखंड के संभवतः एकमात्र उम्रदराज चिकित्सक हैं।
उम्र के 100वें साल में चल रहे डॉ. यूसी चांदना, दून के हर बदलाव के रहे हैं साक्षी
100 वर्षीय डॉ. यूसी चांदना ने चकराता रोड पर पर 1946 में जब क्लिनिक शुरू किया था, तब यह सड़क ‘रामपुर मंडी रोड’ कहलाती थी। तब न नजदीक प्रभात सिनेमा था, न कृष्णा पैलेस। गोयल फोटो कंपनी (1932), दो-एक डॉक्टर्स और कुछ अन्य दुकानें ही आसपास सीमित क्षेत्र में थीं। प्रभात सिनेमा भी दो साल बाद 1948 में अस्तित्व में आया। प्रकाश टॉकीज (दिग्विजय) के निचले हिस्से में तब पेट्रोल पंप हुआ करता था। सामने घंटाघर नहीं था। घंटाघर वाली जगह पानी की टंकी और चायवाले की गुमटी हुआ करती थी। न सड़क की शुरूआत में कुमार स्वीट्स शॉप थी। दोनों 50 के दशक में अस्तित्व में आए। इस तरह डॉ. चांदना आजादी पूर्व के उस दौर के भी साक्षी हैं, जब शहर का आबादी वाला हिस्सा बेहद सीमित था और बिंदाल से आगे बियावान में लोग यदा-कदा ही जाया करते थे। डॉ. चांदना ने तांगों के शहर को चुनिंदा अंग्रेजों की मोटर कार और फिर आजाद भारत में खुली हवा में सांस लेते दून को बनते-संवरते-बिगड़ते मौजूदा तकनीकी क्रांति के दौर तक बेहद करीब से देखा है। यही वजह है कि जब दून के पुराने पत्रकारों को अतीत के संबंध में कुछ लिखना होता है, तो वे डॉ. चांदना का ही रूख करते हैं। यानी, वे मरीजों को ही खुराक नहीं देते, लिखने-पढ़ने और शहर को जानने की ललक रखने वाले कलमकारों को भी उनसे ‘तथ्यपरक खुराक’ मिलती रही है।
याददास्त आज भी दुरूस्त, स्कूटर लेने वाले शुरूआती व्यक्तियों में रहे
डॉ. चांदना अब थोड़ा कम सुन पाते हैं, लेकिन याददास्त पूरी तरह दुरूस्त है। वे बताते हैं कि जब उन्होंने क्लिनिक पर बैठना शुरू किया, तब शहर में डॉ. दुर्गा प्रसाद, डॉ. दीनानाथ कोहली, डॉ. इकबाल सिंह समेत सिर्फ 7 या 8 प्राइवेट डॉक्टर थे। इनमें भी एमबीबीएस डॉक्टर उस वक्त 2-3 ही थे। देश में चुनिंदा मेडिकल कॉलेजों से ही एमबीबीएस होती थी। हरिद्वार का ऋषिकुल उस वक्त आयुर्वेदिक धारा में मेडिकल की पढ़ाई का बड़ा केंद्र था। आम हिंदुस्तानी यहीं से डिप्लोमा कोर्स करके मरीजों की सेवा करते थे। डॉ. चांदना के चेहरे पर चमक तो हर वक्त देखी जा सकती है, लेकिन जब वे अपने पहले स्कूटर को याद करते हैं, तो चेहरे की यह चमक और भी बढ़ जाती हैं याद है। वे बताते हैं कि 1958 में उन्होंने ग्रे कलर का लंब्रेटा स्कूटर लिया था, जिसका नंबर यूपीएस-4917 था। उस वक्त आसपास यह स्कूटर लेने वाले वे पहले व्यक्ति थे। वे बताते हैं कि आजादी पूर्व ही नहीं, आजादी के बाद बाद के पहले दशक में भी देहरा नगर में गाड़ियां उंगलियों पर गिनने लायक ही थीं। निजी कारें इक्का-दुक्का लोगों के पास थीं। आजादी जब मिली, तब आसपास के स्टैंडों में कुल मिलाकर 10 तांगे होते थे। इनमें भी 4 जीपीओ के बाहर और 4 रेलवे स्टेशन के बाहर रहते थे। बाद में इनकी संख्या बढ़ती चली गई और नए स्टैंड भी बने।
1946 में चकराता रोड पर शुरू किया क्लिनिक और 24×7 कैमिस्ट शॉप
डॉ. चांदना ने भी हरिद्वार के ऋषिकुल से ही 1944 में डीएएमएस यानी ‘डिप्लोमा इन आयुर्वेद मेडिसन एंड सर्जरी’ (अब बीएएमएस) किया। 20 अप्रैल 1924 को अविभाजित भारत के बन्नू क्षेत्र स्थित कोहाट में जन्में यूसी ने 1940 में लाहौर से मेट्रिक किया और उसके बाद ऋषिकुल हरिद्वार में प्रवेश लिया। उस समय डीएएमएस के लिए मेट्रिक के बाद ही प्रवेश होते थे। ऋषिकुल में रहने के दौरान वे अन्य छात्रों के साथ हरिद्वार में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी शामिल हुए। डॉ. चांदना के 74 वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र उमेश चांदना बताते हैं कि बन्नू क्षेत्र में तनाव बढ़ने के साथ ही भारत विभाजन से पहले ही उनके दादा लालचंद व दादी नानकी देवी पूरे परिवार के साथ साल-1945 में देहरादून आकर बस गए थे। साल-1944 में ऋषिकुल से पासआउट होने के बाद डॉ. यूसी चांदना ने तकरीबन डेढ़ साल मुरादनगर स्थित ऑर्डनेंस फैक्टरी डिस्पेंसरी में बतौर डॉक्टर सेवाएं दीं। ऑर्डनेंस फैक्टरी अस्पताल की सेवा छोड़कर वे दिसंबर-1946 में देहरादून आ गए और यहां रामपुर मंडी रोड (चकराता रोड) पर लालचंद एंड संस नाम से कैमिस्ट शॉप और उसी के एक हिस्से में क्लिनिक शुरू किया। तब से वे नियमित तौर पर आज 100 वें वर्ष में प्रविष्ट होने के बावजूद नियमित तौर पर मरीजों को देखते हैं। 1990 के दशक तक उनकी कैमिस्ट शॉप शहर की एकमात्र ऐसी दवा शॉप थी, जहां आवश्यकता पड़ने पर मरीज को रात के वक्त भी दवा उपलब्ध कराई जाती थी। इसके लिए शटर में एक छोटी सी विंडो बनाई गई थी। साल-2011 में चकराता रोड को चौड़ा किए जाने के अभियान की जद में उनकी शॉप और क्लिनिक का काफी हिस्सा आ गया। लिहाजा, उसके बाद से वे सड़क पार गोयल अपनी आवासीय बिल्डिंग में ही क्लिनिक चला रहे हैं।
कोविडकाल में भी बिना भयभीत हुए दी अपने मरीजों को राहत

डॉ. चांदना आज भी दोनांे वक्त अपने क्लिनिक पर बैठते हैं। उनके मरीजों का उन पर विश्वास यथावत है। फीस भी वे नाममात्र की महज 100 रूपये लेते हैं। सर्दी-गर्मी-वर्षा कुछ भी हो, उनकी दिनचर्या नहीं बदलती। सुबह 11-11ः30 से दोपहर 2 बजे तक और शाम को 6 से 8 बजे तक वे मरीजों को परामर्श देते हैं। खासबात यह है कि कोविडकाल में जब तमाम बड़े डॉक्टर्स क्लिनिक और नर्सिंग होम मरीजों के लिए बंद करके घर बैठ गए थे, तब ऐसे वक्त में भी डॉ. चांदना लॉकडाउन के बीच मिलने वाली छूट के दौरान क्लिनिक पर बैठकर मरीजों को राहत देते थे। वह भी तब, जब कि उनकी उम्र 97-98 वर्ष चल रही थी। कोविड से वे जरा भी भयभीत नहीं हुए। उनके भांजे सुशील विरमानी बताते हैं कि डॉ. चांदना अप्रैल में 100 पूरे करेंगे, लेकिन आज भी वे सुबह उठकर सबसे पहले स्वयं शेव बनाते हैं। सर्दियों में सुबह 6 बजे, जबकि गर्मियों में इससे पहले उठ जाते हैं। नहा-धोकर स्वयं तैयार होते हैं और क्लिनिक आते हैं। उम्रदराज होने के कारण उन्हें अब केवल थोड़ा ऊंचा सुनने की दिक्कत है। साथ ही चलने के लिए छड़ी का सहारा लेना पड़ता है। इसके अलावा कोई समस्या नहीं है। खाने में भी वे हल्का-फुल्का सभी कुछ खाते हैं, खासकर हरी सब्जियां। पहले नॉनवेज भी खाते थे, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ उन्होंने नॉनवेज खाना बंद कर दिया। डॉ. चांदना के तीन भाई और दो बहने थीं। इनमें एक भाई डॉ. ओमप्रकाश का क्लिनिक भी कुछ वर्ष पूर्व तक प्रभात सिनेमा के नजदीक था। सुशील कहते हैं कि 100 साल में भी डॉ. चांदना की सक्रियता जिस तरह बनी है, वह हम सबको प्रेरित करती है।

