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मई का आखिरी सप्ताह और ‘क्रांतिदूत’ व ‘शांतिदूत’ का देहरादून कनेक्शन

मई का आखिरी

देहरादून। मई महीने का आखिरी सप्ताह। इस सप्ताह में होती है एक राष्ट्ररत्न की जयंती, दूसरे की पुण्यतिथि। एक क्रांति की ज्वाला, दूसरा शांति का मतवाला। एक बंगाल में जन्मा, दूसरा प्रयाग में। इससे इतर एक खास बात और। वह, यह कि दोनों का ही खास संबंध रहा देहरादून से। यहां बात हो रही है महान क्रांतिदूत व आजाद हिंद फौज के संस्थापक रासबिहारी बोस की। और बात हो रही है देश के प्रथम प्रधानमंत्री व शांति के अग्रदूत जवाहरलाल नेहरू की। अलग-अलग कारणों से ही सही दोनों का दूनघाटी से अविस्मरणीय रिश्ता रहा है।

रास बिहारी बोस और एफआरआई

पुराने दून के इतिहास और गली-मुहल्लों के किस्से-कहानी जब सुने-सुनाए जाते हैं, तो रास बिहारी बोस का जिक्र जरूर आता है। वही रास बिहारी बोस, जो दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग की सवारी पर बम फेंके जाने की घटना के मुख्य सूत्रधार रहे हैं। वही रास बिहारी बोस, जिन्होंने विस्तृत ओर औपचारिक तौर पर आजाद हिंद फौज खड़ी की और आगे चलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उसकी कमान सौंपी। 25 मई 1886 को पश्चिम बंगाल में जन्में रास बिहारी 1908 के आसपास बंगाल से देहरादून आ गए थे। बताया जाता है कि यहां चकराता रोड स्थित टैगोरविला क्षेत्र को उन्होंने अपना आशियाना बनाया। हालांकि, कुछ पुराने दूनवासी घोसीगली में भी उनका निवास बताते रहे हैं। रास बिहारी देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई) में पहले क्लर्क और फिर हेड क्लर्क के तौर पर सेवारत रहे। एफआरआई उस वक्त परेड मैदान के नजदीक स्थित उस परिसर में था, जिसे रेंजर्स कॉलेज के तौर पर जाना जाता है।

चांदनी चौक बम कांड और आईएनए की स्थापना

ब्रिटिश सरकार 1912 में राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट किया। राजधानी की शिफ्टिंग को समारोहपूर्वक मनाया गया। इसके तहत 23 दिसंबर 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की शोभायात्रा निकली। जब हाथी पर सवार लॉर्ड हार्डिंग की सवारी चांदनी चौक क्षेत्र से गुजर रही थी, तभी उस पर बम फेंका गया। इस घटनाक्रम के मुख्य योजनाकारों में रास बिहारी शामिल थे, जो घटना के तत्काल बाद रात में ही देहरादून लौट आए और अगले दिन एफआरआई में ड्यूटी ज्वाइन कर ली। हालांकि, आगे चलकर इस घटना के सिलसिले में किशोर बसंत कुमार विश्वास को फांसी दे दी गई। बताया जाता है कि बसंत कुमार दून में रास बिहारी के साथ ही रहते थे।

इधर, ब्रिटिश पुलिस और खुफिया एजेंसियों के रडार पर आने के बाद रास बिहारी बोस पहले एफआरआई व देहरादून और फिर बंगाल छोड़कर जापान चले गए। आगे चलकर 1942 में उन्होंने जापान में कैप्टन मोहन सिंह के साथ मिलकर इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) की बड़े रूप में स्थापना की। आईएनए का शुरूआती बीजारोपण करने वाले कैप्टन मोहन सिंह का भी देहरादून से जुड़ाव इस मायने में रहा कि वे यहां स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) के शुरूआती बैच के पासआउट रहे। जुलाई-1943 में रास बिहारी बोस ने यही आईएनए यानी आजाद हिंद फौज नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंप दी।

जवाहर लाल नेहरू और देहरादून जिला जेल

स्वाधीनता आंदोलन के प्रखर नेता जवाहरलाल नेहरू का जिक्र हो और उत्तराखंड का उल्लेख न हो, तो यह अधूरा ही रहेगा। वे यहां एक पुत्र के रूप में रहे। वे यहां राजनीतिक नेतृत्वकर्ता के रूप में आए। वे यहां जेलयात्री के तौर पर रहे और प्रधानमंत्री के तौर पर भी। अल्मोड़ा, देहरादून-मसूरी से लेकर श्रीनगर गढ़वाल तक नेहरू की गतिविधियों के अनगिनत निशां हैं। नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू कुछ समय यहां मसूरी में रहे। आज भी उनके नाम से मसूरी लाईब्रेरी के नजदीक मोतीलाल नेहरू मार्ग स्थित है। माता-पिता के साथ जवाहरलाल नेहरू का मसूरी आना-जाना रहा। बाद में जब वे स्वाधनीता आंदोलन की प्रथम पंक्ति में आए, तो 1920 में देहरादून के परेड मैदान में हुई पहली डिस्ट्रिक्ट पॉलिटिकल कांफ्रेंस की अध्यक्षता करने पहुंचे। इसके बाद भी उन्होंने देहरादून, मसूरी और श्रीनगर में कई सभाओं में हिस्सा लिया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू को अल्मोड़ा और देहरादून की जेल में रखा गया। देहरादून जेल में वे 1232, 1934 और 1940 समेत कुल चार बार बंदी रहे।

बतौर प्रधानमंत्री आखिरी लंच देहरादून में

स्वतंत्रता पश्चात जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने, तब भी उनका देहरादून और मसूरी नियमित आना-जाना रहा। तिब्बती धर्मगुरू दलाईलामा जब शरणार्थियों के साथ मसूरी पहुंचे, तो नेहरू यहीं उनसे मुलाकात करने पहुंचे थे। देहरादून के खूबसूरत हरियाले सर्किट हाऊस (अब राजभवन) के साथ ही सहस्त्रधारा नेहरू की पसंदीदा जगहों में शामिल रहे हैं। इत्तेफाक देखिए, अपनी मृत्यु से पहले आखिरी चार दिन भी जवाहरलाल नेहरू ने देहरादून में ही बिताए थे। 23 मई 1964 को वे देहरादून आए और यहां सर्किट हाउस में रहे।

सर्किट हाउस के अलावा वे आखिरी बार सहस्त्रधारा भी गए। वहां गंधक के पानी से स्नान किया। दोपहर का भोजन किया। लोगों से मिले। सहस्त्रधारा में वे पीडब्ल्यूडी के निरीक्षण भवन में ठहरे। यह निरीक्षण भवन दो साल पहले 1962 में ही बनकर तैयार हुआ था। तब इसकी दूसरी मंजिल नहीं थी और ऊपर टीन की लाल छत हुआ करती थी। नेहरू 26 मई 1964 की शाम देहरादून से दिल्ली के लिए रवाना हुए। 27 मई को उनका निधन हो गया। इस तरह अपना आखिरी दोपहर का भोज उन्होंने देहरादून में ही किया।

यादों को संजोने के प्रति उदासीनता

रास बिहारी बोस हों या जवाहरलाल नेहरू, दून से संबंध होने के बावजूद देहरादून प्रशासन, देहरादून नगर निगम, पूववर्ती यूपी सरकार हो या राज्य बनने के बाद उत्तराखंड सरकार, किसी ने भी इन महान नेताओं की स्मृतियों को जीवंत रखने की दिशा में कुछ नहीं किया। विडंबना देखिए, एफआरआई के मौजूदा परिसर में अंग्रेज अधिकारियों के नाम पर दर्जनभर सड़कें हैं, लेकिन महान का्रंतिकारी रासबिहारी बोस, जो उसी एफआरआई के कर्मचारी रहे हैं, उनके नाम पर कोई सड़क या भवन नहीं है। शहर में भी न रासबिहारी की कोई प्रतिमा स्थापित की गई है और न कहीं उनके नाम पर कोई सड़क या सरकारी भवन है।

इसी तरह, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की स्मृति को जीवंत रखने के लिए न सहस्त्रधारा स्थित उस पीडब्ल्यूडी निरीक्षण भवन में कोई फोटोग्राफ, बोर्ड या चिह्न उनके नाम पर है, जहां वे आखिरी समय रूके थे। पुरानी जेल परिसर में कहने को नेहरू वार्ड और उसमें नेहरूजी की कुर्सी-मेज, चारपाई है, लेकिन उसकी दशा भी काफी खराब है। इसी परिसर में नेहरू के नाम का स्मारक भी जीर्णशीर्ण है। शहर में ऐस्लेहॉल चौक पर नेहरू की छोटी सी प्रतिमा है, लेकिन उसे बिजली के ट्रांसफार्मरों से ढका-छिपा दिया गया है।

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