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जानिए, कौन हैं ‘रैट होल माइनर्स’ और कैसे काम करती है आदिवासी समाज की यह प्राचीन तकनीक

देहरादून। कहावत है कि जान बचाने के लिए कभी-कभी बेहद कड़वी दवा का भी सहारा लेना पड़ता है। कुछ ऐसा ही हुआ ऑपरेशन सिलक्यारा में। पिछले 17 दिन से फंसे 41 मजदूरों को बाहर निकालने की कोशिशों में जब भारी-भरकम मशीनें भी हार गईं, तब रैट होल माइनर्स का सहारा लेना पड़ा। यह बेहद जोखिमभरी तकनीक है। पूर्व में एनजीटी रैट होल माइनिंग तकनीक को प्रतिबंधित भी कर चुकी है। लेकिन, यहां सवाल 41 जिंदगियों को बचाने का था और सभी रास्ते बंद हो गए थे या बेहद लंबा समय और जोखिम वाले थे। ऐसे में रैट होल माइनिंग तकनीक ही ‘डूबते को तिनके का सहारा’ बनी।

एनजीटी ने एक दशक पहले प्रतिबंधित किया था रैट होल माइनिंग को
रैट होल माइनिंग तकनीक का इस्तेमाल आमतौर पर मध्य भारत और नॉर्थ ईस्ट में किया जाता रहा है। यह खनन की प्राचीन तकनीक है, जो बेहद जोखिमभरी होती है। आमतौर पर दुष्कर बनावट वाले क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल कोयला निकालने के लिए किया जाता रहा है। सेंट्रल और नॉर्थ ईस्ट के क्षेत्र में आदिवासी और अन्य जनजातीय समाज के लोग रैट होल माइनिंग में पारंगत होते हैं। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है रैट होल माइनिंग ‘चूहे की तरह खनन’ करते हुए आगे बढ़ने की तकनीक है। इसके तहत बहुत संकरा सा गड्ढा बनाया जाता है और उसके सहारे आगे बढ़ा जाता है। सामान्यतः यह वर्टिकल होता है, लेकिन सिलक्यारा में इसी तकनीक को हॉरिजेंटल इस्तेमाल किया गया। रैट होल माइनर्स में काफी संख्या में बच्चे भी शामिल होते रहे हैैं, जो हाथों के सहारे मिट्टी निकालते हुए तेजी से आगे बढ़ने में माहिर होते हैं। लेकिन, इस तकनीक के जोखिम और पर्यावरणीय पहलुओं को देखते हुए करीब एक दशक पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ (एनजीटी) ने इस पर प्रतिबंध भी लगाया।

आखिर मशीनों की हार के बाद रैट होल माइनिंग तकनीक ने ही दिखाई नई रोशनी
सिलक्यारा टनल में फंसे मजदूरों को निकालने के लिए रैट होल माइनर्स का ही सहारा अंततः लेना पड़ा। चूंकि, ऑगर मशीन मंजिल के करीब तक पहुंचने से पहले ही डैमेेज हो गई। इसके चलते तीन दिन तक पूरा काम रूका रहा। वहीं, वर्टिकल ड्रिलिंग की कोशिशें शुरू की गईं, लेकिन उसमें समय काफी लगने वाला था। साथ ही उसके जोखिम भी थे। ऐसे में रैट होल माइनर्स को ही बुलाना पड़ा। मध्य प्रदेश से आए इन रैट होल माइनर्स की टीम ने सोमवार शाम मोर्चा संभाला। पाइप के अंदर घुसे। आखिरी छोर तक पहुंचे। आगे मलबे का पहाड़ था। मैनुअली उसे खोदना शुरू किया और वह भी तेजी के साथ। वे खोद कर बाहर निकलते। फिर पाइप पुश किया जाता। फिर वे पाइप के सहारे आखिर तक पहुंचते और आगे का रास्ता बनाते। इस तरह चंद घंटों में मंगलवार दोपहर तक उन्होंने उस बेहद कठिन ऑपरेशन को सफल बनाने की इबारत लिख डाली, जिसमें मशीनें और महंगी तकनीकें भी हार चुकी थीं।

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