उत्तराखंडदुर्घटनामुद्दाहिमालयी राज्य

जाने-माने भू-विज्ञानी और टनल एक्सपर्ट डॉ. पीसी नवानी की दो टूक, ‘प्राकृतिक नहीं, मानवजनित है सिलक्यारा हादसा’

देहरादून। सिलक्यारा टनल हादसा प्राकृतिक नहीं, ‘मानवजनित’ है। इस तरह की घटनाएं भू-गर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप किए जाने वाले उपचारों के प्रति लापरवाही, अनदेखी और जल्दबाजी का नतीजा होती हैं। अन्यथा, उत्तराखंड में आवाजाही के लिए टनल सर्वाधिक सुरक्षित विकल्प है। यह कहना है जाने-माने भू-विज्ञानी व टनल एक्सपर्ट डॉ. पीसी नवानी का।

जानिए, कौन हैं डॉ. पीसी नवानी

डॉ. पीसी नवानी मूलरूप से उत्तराखंड के निवासी हैं ओर इन दिनों गुड़गांव में रह रहे हैं। वे कई वर्षों तक उत्तराखंड में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) के डायरेक्टर रहे हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रॉक मैकेनिक्स (एनआईआरएम) के पूर्व निदेशक डॉ. नवानी को इंजीनियरिंग भू-विज्ञान, भू-तकनीकी, रॉक यांत्रिकी और खासकर टनल परियोजनाओं में विशेषज्ञता हासिल है। डॉ. नवानी ने पूर्व में श्रीनगर-बारामूला रेल लाइन के निर्माण संबंधी प्रोजेक्ट के शुरूआती चरण में भी बतौर विशेषज्ञ अपनी सेवाएं दी हैं। वे वर्तमान में भूटान और विशाखापट्टनम में विभिन्न परियोजनाओं में एडवाइजर के रूप में जुड़े हैं। 

परिवहन के लिए टनल सबसे सुरक्षित विकल्प, पर निर्माण में कर दी जाती है मानकों की अनदेखी, लापरवाही और जल्दबाजी 

डॉ. नवानी कहते हैं कि उत्तराखंड में चाहे रेल परियोजनाएं हों अथवा सड़क, आवाजाही के लिए टनल सर्वाधिक सुरक्षित माध्यम हैं। क्योंकि, पहाड़ों पर जब सड़क काटी जाती है, तो उससे काफी समय तक भूस्खलन का खतरा बना रहता है। जबकि, टनल की स्थिति में ऐसा नहीं होता। लेकिन, जरूरी यह है कि टनल निर्माण की पूरी प्रक्रिया में भूगर्भीय स्थितियों का सही आंकलन हो और उसके अनुरूप समुचित कदम उठाए जाएं।

एक बार निर्माण हो जाने के बाद टनल हर समय सुरक्षित रहती है। दिक्कत प्राकृतिक नहीं होती। दिक्कत टनल निर्माण की प्रकिया के दौरान मानवीय त्रुटियों के कारण आती है। जियोलॉजिस्ट से सलाह लेकर (कई बार सिर्फ ऑपचारिकता के लिए) एक डिजाइन बना लिया जाता है और उसी के आधार पर आगे काम होता है। जबकि, जियोलॉजिस्ट की सलाह प्रोजेक्ट पूरा होने तक नियमित तौर पर ली जानी चाहिए। कंस्ट्रक्शन के समय वही यह एसेसमेंट कर सकता है कि कहां मजबूत रॉक्स हैं और कहां खराब जोन है। उसकी राय के अनुरूप जहां खराब जोन होता है, वहां अतिरिक्त उपाय करने होते हैं। एक्सट्रा सपोर्ट देना होता है। लेकिन, निर्माण कंपनियां पैसा और समय बचाने के लिए इस मामले में पूरी तरह अनदेखी, लापरवाही और जल्दबाजी करती हैं। वह कहते हैं कि इसी का नतीजा उत्तरकाशी के सिलक्यारा में निर्माणाधीन टनल में हुई घटना के तौर पर भी देखा जा सकता है। यह घटना कहीं न कहीं निर्माण के समय बरती जा रही मानवीय चूक का परिणाम है। डॉ. नवानी कहते हैं कि कई प्रोजेक्ट में तो निर्माण कंपनियों के पास एक भी एक्सपर्ट जियोलॉजिस्ट नहीं होता। जबकि, पहली शर्त यह होनी चाहिए कि सरकार को प्रोजेक्ट का काम देने वक्त ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि निर्माण एजेंसियों के पास एक्सपर्ट जियोलॉजिस्ट हों और वह भी प्रोजेक्ट पूरा होने तक। निर्माण एजेंसियों से उनके जियोलॉजिस्ट की सूची मांगी जानी चाहिए।

टनल व्यास के तीन गुना ऊंचाई तक का हिस्सा ही संवेदनशील, उससे ऊपर कोई खतरा नहीं
डॉ. नवानी बताते हैं कि किसी भी टनल के व्यास (डायामीटर) के ऊपर तीन गुना तक का हिस्सा ही संवेदनशील होता हैं। मसलन, अगर कोई टनल 10 मीटर व्यास की है, तो उसके ऊपर की तीन गुना यानी 30 मीटर तक की पहाड़ी संरचना ही संवेदनशील होती है, जिसके गिरने-धसने का खतरा रहता है। इससे ऊपर कभी किसी तरह का खतरा नहीं होता। इसलिए, टनल के डायमीटर के तीन गुना तक का आकलन करके जहां कमजोर हिस्सा होता है, वहां काफी सपोर्ट देना पड़ता है। कई बार बाकी जगह के मुकाबले अतिरिक्त भी। जहां इसकी अनदेखी की जाती है या लापरवाही होती है, वहीं टनल ढहने अथवा टनल में भूस्खलन, भू-धसाव जैसी दुर्घटना होती है। सिलक्यारा टनल तो करीब 140 मीटर गहराई में है, जो पूरी तरह सुरक्षित होनी चाहिए। लेकिन, नेग्लिजेंस के कारण ही टनल बीच में दरकने जैसी घटना हो गई, वरना और कोई वजह नजर नहीं आती।

बाकी हिमालय जितने ही पुराने और मजबूत हैं उत्तराखंड के पहाड़, नई है तो भू-गर्भीय हलचल
डॉ. नवानी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि उत्तराखंड के पहाड़ अभी नए हैं और निर्माण की प्रक्रिया से ही गुजर रहे हैं। वह कहते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ भी उतने ही पुराने हैं, जितना हिमालयन रॉक्स। हां, इतना जरूर है कि उत्तराखंड के नीचे हो रही भू-गर्भीय एक्टिविटीज नई हैं। इंडियन प्लेट का मूवमेंट तिब्बतन प्लेट की ओर हो रहा है, जो उत्तराखंड क्षेत्र को प्रभावित करता है। कहीं फॉल्ट वगैरह की भी दिक्कत है। टेक्टोनिक प्लेट की हलचल की वजह से कुछ जगह पहाड़ी वीक हो जाती हैं। इसलिए, यह जियोलॉजिस्ट ही बता सकते हैं कि कहां पहाड़ी हल्की है और उसके लिए क्या अतिरिक्त सपोर्ट देना है।

अवैज्ञानिक ढंग से हो रहा उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड का काम, खतरनाक ढंग से काटे जा रहे पहाड़

उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड (हाईवेज के चौड़ीकरण) का काम जिस तरह से हुआ और हो रहा, उसे डॉ. नवानी पूरी तरह ‘अवैज्ञानिक’ करार देते हैं। वह कहते हैं कि अन साइंटिफिक वे में सड़कों के लिए पहाड़ों की कटिंग की जा रही हैं। सड़कों को चौड़ा करने के लिए कई जगह तो पहाड़ों को काफी खतरनाक ढंग से एकदम सीधे भी काट दिया गया है। यह स्थिति बार-बार भूस्खलन का कारण बन रही है। दरअसल, हाईवेज को चौड़ा करने के मामले में निर्माण एजेंसियों ने भू-विज्ञानियों की राय नहीं ली। यदि ली भी, तो उस पर ठीक से अमल नहीं किया जा रहा। वह कहते हैं कि कलियासौड़ भूस्खलन जोन पिछले कई दशक से एक्टिव रहा है। उसके ट्रीटमेंट पर अब तक कई बार बड़ी मात्रा में पैसा खर्च किया जा चुका। जबकि, उससे काफी कम खर्च में उस जोन का अवाइड करने के लिए टनल बनाई जा सकती थी, जो सुरक्षित भी होती। साथ ही पहाड़ के भूस्खलन जोन भी स्टेबल हो जाता। यही स्थिति कई अन्य भूस्खलन जोन में है, जहां टनल के बजाय ट्रीटमेंट पर पैसा खर्च हो रहा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *