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गढ़वाल मंडल में कभी ‘दहेज विरोधी पुल’ के नाम से थी इस आरयूबी की पहचान

देहरादून। उत्तराखंड में पुल और पुलिया असंख्य हैं। रेलवे ओवरब्रिज (आरओबी) और अंडरब्रिज (आरयूबी) की तादाद भी कम नहीं हैं। इन सबका महत्व सुगम यातायात संभव बनाना है। यही इनकी पहचान भी है। मगर, एक आरयूबी ऐसा भी है, जिसकी पहचान इससे कुछ अलग हटकर रही। देहरादून-ऋषिकेश हाईवे (हरिद्वार रोड) पर स्थित इस आरयूबी की पहचान दशकों तक ‘दहेज विरोधी पुल’ के तौर पर रही है। गढ़वाल और देहरादून के बीच 1980 के दशक के आखिर और कुछ हद तक 1990 के दशक की शुरूआत तक भी जो लोग बारात की बसों में सफर कर चुके हैं, उनकी यादों में यह ‘दहेज विरोधी पुल’ आज भी दर्ज है।

दरअसल, अवध-रूहेलखंड रेल सिस्टम का संचालन करने वाली कंपनी ने अपने नेटवर्क के विस्तार के लिए 1897-1900 के बीच हरिद्वार-देहरा रेल लाइन का निर्माण किया। रेल लाइन निर्माण पूरा होने के बाद 1 मार्च 1900 को हरिद्वार से पहली एलडी ट्रेन ने हरिद्वार से देहरा तक का सफर तय किया। तब इस रेल लाइन पर कई पुल और मुख्यतः दो अंडरपास या अंडरब्रिज (आरयूबी) का निर्माण भी किया गया। इनमें एक अंडरपास रायवाला क्षेत्र में, जबकि दूसरा लच्छीवाला में बनाया गया। चूंकि, जब इनका निर्माण किया गया, तब देहरा-हरिद्वार के बीच आज की तरह सड़क नहीं थी और न वाहन। जो सड़क थी, वह संकरी, कई हिस्सों में बंटी और कच्ची थी। इसी तरह आवाजाही के लिए पैदल, घोड़े, बैलगाड़ी या तांगों का ही इस्तेमाल होता था। लिहाजा, रेलवे लाइन के नीचे जो अंडरपास दिए गए, वे बहुत संकरे और कम ऊंचाई वाले थे। समय के साथ रायवाला के अंडरब्रिज के नीचे के हिस्से को तो फिर भी सुविधाजनक बना लिया गया, लेकिन लच्छीवाला अंडरब्रिज के नीचे सड़क को गहरा करने के बावजूद ज्यादा ऊंचाई नहीं बनाई जा सकी। ऋषिकेश, हरिद्वार और समूचे गढ़वाल-कुमाऊं के लिए छोटे वाहनों से लेकर बस-ट्रक तक सभी यहीं से गुजरते थे और हर वक्त यहां जाम लगा रहता था।

…इसलिए, बनी दहेज विरोधी पहचान

दूसरी ओर, खासतौर से 80 के दशक के आखिर तक गढ़वाल और देहरादून के बीच होने वाली शादियों में निजी वाहन आमतौर पर न होने के कारण बारात पूरी तरह बसों पर ही निर्भर थी। शादियों में दुल्हन को फर्नीचर, बेड, अलमारी, बड़े बॉक्स आदि जो दहेज का सामान मिलता था, वह बस की छत पर ही लादा जाता था। बारात की बस जब लच्छीवाला पहुंचती थी, तो ऐन रेलवे अंडरब्रिज से पहले छत से दहेज का सामान उतारना मजबूरी बन जाती थी। आरयूबी की ऊंचाई बहुत कम होने के कारण पहले से ही सतर्क कुछ बाराती बस की छत में चढ़कर सामान उतारते थे और फिर बस के अंडरपास पार करने के बाद उसकी छत पर पुनः चढ़ाते थे। कई बार अपनी रौ में मगन जो बाराती और बस चालक भूलवश आगे बढ़ जाते थे, उन्हे इसका खामियाजा बस की छत पर लदे सामान टूटने-गिरने के तौर पर भुगतना पड़ता था। ऐसे में पुराने लोगों के बीच लच्छीवाला आरयूबी की पहचान ‘दहेज विरोधी पुल’ के तौर पर बन गई। यहां तक कि प्रख्यात साहित्यकार स्व. विद्यासागर नौटियाल न केवल कई मर्तबा अपने संबोधनों में इस आरयूबी का जिक्र करते थे, बल्कि कुछेक स्थानों पर अपने लिखे में भी इसका उल्लेख उन्होंने दहेज विरोधी पुल के रूप में ही किया।

50-60 के दशक में ट्रक के मुंह जैसी और ड्राइवर की खिड़की पर रबड़ के भोंपू (बाजानुमा हॉर्न) वाली बसों के दौर से लेकर 90 के दशक की शुरुआत में आधुनिक सुविधाओं से युक्त बसों तक के दौर में दहेज विरोध का पर्याय बने इस अंडरपास की यह पहचान छोटे व्यावसायिक वाहनों और निजी वाहनों के बढ़ने के साथ ही दहेज का पहले सरीखा प्रचलन कम होने के बाद पुराने लोगों की स्मृतियों से इतर समाप्त हो गई। साल-2013 में लच्छीवाला में फ्लाईओवर (आरओबी) का निर्माण हो जाने के बाद अब पुराने आरयूबी से वाहनों की आवाजाही बंद हो चुकी। सिर्फ लच्छीवाला नेचर पार्क जाने वाले पर्यटक या डोईवाला क्षेत्र के इक्का-दुक्का लोग ही यहां से गुजरते हैं।

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