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….विट्ठल आश्रम में एक ‘गांधी’ की कुटिया

देहरादून। 1948 के बाद जन्मी पीढ़ियों ने गांधी को नहीं देखा। गांधी, जिनके पीछे पूरा देश चल पड़ता था। जिनके एक आह्वान पर लाठी-गोली खाने, जेल जाने वालों की कतारें लग जाया करती थीं। उन गांधी को स्वतंत्र भारत की पीढ़ियों ने जीवंत देखा भले ही नहीं, मगर पढ़ा, सुना, चित्रों-वीडियो के माध्यम से देखा और जाना खूब है। एक गांधी और हुए, इस मुल्क से दूर। सीमांत गांधी। मगर, एक तीसरे गांधी भी हुए हैं। वह गांधी, जिन्हें 1990 के दशक से पहले और 90 के दशक की मौजूदा पीढ़ी ने देखा भी है, जाना और समझा भी है। दशकों राजनीति में रह कर भी भय-भ्रष्टाचार, मोह-माया से दूर, बहुत दूर। यानी, कोयले की कोठरी में भी एकदम बेदाग। वह गांधी, जो संस्कृतिकर्मी की भूमिका में होते थे, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जैसी हस्ती को भी थिरका उठते थे। जब ब्लॉक और विधानसभा में बैठते, तो राजनीति में शुचिता और ईमानदारी की नई इबारत गढ़ते। वह जब यात्री बनकर दुर्गम पहाड़ों पर मीलों पैदल निकल पड़े, तो सहस्त्रताल और खतलिंग जैसे ग्लेशियर साहसिक पर्यटन के नक्शे पर जगह पा गए। वह गांधी, जो जब अनशन पर बैठे, तो पूरा पहाड़ ‘आज दो-अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो…’ के नारे के साथ सड़क पर उतर आया। विदेशी मीडिया ने जिसकी तस्दीक ‘पर्वतीय गांधी’ के रूप में की, आज 18 अगस्त उन्हीं इद्रमणि बडोनी की पुण्यतिथि है।

प्रचंड जन सैलाब को बडोनी ने दिया गांधी सा अहिंसक नेतृत्व

यकीनन, बडोनी गांधी ही थे। इस अंचल के गांधी। इस उत्तराखंड के गांधी। पर्वतीय गांधी। 1994-95 में खटीमा-मसूरी, रामपुर तिराहा, देहरादून, श्रीयंत्र टापू समेत अनेक स्थानों पर सत्ता के मद में ‘अंधी’ यूपी की तत्कालीन सपा-बसपा गठबंधन सरकार ने अपने खाकीधारियों के जरिए नरसंहार-दर-नरसंहार कराए। केंद्र में बैठी तत्कालीन कांग्रेस की ‘मौनी सरकार’ का मौन संरक्षण उसे मिला। मगर, यह इंद्रमणि बडोनी का ‘गांधीमय’ नेतृत्व ही था कि पहाड़ की शिराओं में बहता सैलाब पूरी तरह शांतिपूर्ण बना रहा। लाठी-गोली, जेल-अपमान सब कुछ सहकर भी पहाड़ के गांधी के नेतृत्व में चले प्रचंड उत्तराखंड आंदोलन ने कभी भी गांधीवादी अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा। वह भी तब, जबकि इन पहाड़ों के औसतन हर घर से देश को एक फौजी मिलता है।

एसपी का चीखना और पर्वतीय गांधी की सहजता


पर्वतीय गांधी की सहजता-सरलता और अहिंसात्मक नेतृत्व के कई किस्से याद आते हैं। एक बार जेल भरो आंदोलन चल रहा था। हजारों लोग देहरादून की सड़कों पर उतरे। देहरादून में एसपी सिटी का पद नया-नया क्रियेट किया गया था। कोई माथुर उपनाम के युवा एसपी सिटी बनकर आए। न वे बडोनीजी को पहचानते थे। न आंदोलनकारी युवाओं के तेवरों को। उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति देहरादून के संयोजक रणजीत सिंह वर्मा, उक्रांद की तब की महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष सुशीला बलूनी, वेद उनियाल, शंकर चंद रमोला, रविंद्र जुगरान समेत बड़ी तादाद में आंदोलनकारियों को पकड़कर पुलिस लाइन लाया गया। पुलिस लाइन तब अस्थायी जेल बना दी गई थी। आंदोलनकारियों को जेल की व्यायामशाला में ठूंस दिया गया। इस बीच, बडोनीजी पुलिस लाइन पहुंचे। संघर्ष समिति के नेता वेद उनियाल व अन्य ने उनसे आंदोलनकारियों को संबोधित करने का आग्रह किया। बडोनीजी ने संबोधन शुरू किया और सबसे पहली अपील ही अहिंसक व शांतिपूर्ण बने रहने की की। अभी कुछ ही मिनट हुए थे कि अचानक एसपी सिटी माथुर दनदनाते हुए पहुंचे और बडोनीजी पर लगभग चीखते हुए भाषण बंद करके बैठने को कहा। बडोनीजी एकदम संबोधन बंद करके नीचे जमीन पर बैठ गए। एक पल को सन्नाटा छा गया। अब बारी आंदोलनकारियों की थी। बडोनीजी के अपमान के मुद्दे पर उन्होंने वहां बवाल शुरू कर दिया। माहौल इतना तनावपूर्ण हो गया कि पुलिस के पसीने छूट गए। जब एसपी सिटी को भी यह पता चला कि वे अनजाने में किससे अभद्रता कर बैठे, तो उन्होंने बाकायदा बडोनीजी से माफी मांगकर हालात शांत कराने का आग्रह किया। बडोनीजी उठे। सभी से, खासकर गुस्साए युवाओं से शांति की अपील की और कुछ ही पलों में सबकुछ शांत हो गया।

विधायक, यात्री, संस्कृतिकर्मी यानी बहुआयामी व्यक्तित्व


उत्तराखंड आंदोलन के प्रणेता इंद्रमणि बडोनी का जन्म 24 दिसंबर 1925 को टिहरी रियासत के अखोड़ी गांव में हुआ था। यह गांव टिहरी जिले की घनसाली तहसील मुख्याल से करीब 32 किलोमीटर दूर ग्यारहगगांव-हिंदाव पट्टी में स्थित है। बडोनी अच्छे रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी थे। उन्होंने नृत्य नाटिका माधो सिंह भंडारी और रामलीलाओं का मंचन कराने के अलावा केदारनृत्य को नई पहचान दिलाई। कई वाद्ययंत्रों के आजनकारी बडोनी वालीबॉल के भी अच्छे खिलाड़ी थे। राजनीतिक जीवन की षुरूआत उन्होंने अखाड़ी के प्रधान पद से शुरू की। वे 1956 में जखोली (अब रूद्रप्रयाग जिले में) के ब्लॉक प्रमुख भी बने। देवप्रयाग विधानसभा सीट से 1967 में निर्दलीय, 1969 में कांग्रेस प्रत्याशी और 1977 में तीसरी बार पुनः निर्दलीय के तौर पर अविभाजित उत्तर प्रदेश में विधायक रहे। उन्होंने पहाड़ में कई लंबी पदयात्राएं कीं। 1979 में उत्तराखंड क्रांति दल की स्थापना होने के कुछ समय बाद वे इस दल से जुड़ गए और आजीवन इससे जुड़े रहकर राज्य स्थापना को अपना ध्येय बना दिया। 1989 में वे टिहरी लोकसभा सीट से चुनाव लड़े। मगर, महज 10 हजार के आसपास वोटों से हार गए। यूपी में पर्वतीय विकास परिषद के उपाध्यक्ष रहे बडोनी 2 अगस्त 1994 को पौड़ी प्रेक्षागृह में पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए अनशन पर बैठे। 8 अगस्त को उन्हें पुलिस और प्रशासन ने जबरन उठाकर पहले दिल्ली एम्स और फिर मेरठ मेडिकल कॉलेज भेजा। उनकी गिरफ्तारी के साथ ही पूरा पहाड़ सड़कों पर उतर आया और फिर 9 नवंबर 2000 को राज्यप्राप्ति से पहले चुप नहीं बैठा।

18 अगस्त 1999 की वह स्याह रात

ऋशिकेष से सटे टिहरी जिले के भद्रकाली और मुनिकी रेती के बीच मुख्य मार्ग से थोड़ा हटकर एक और मार्ग निकलता है, जो सीधे लक्ष्मणझूला और तपोवन की ओर जाता है। इसी मार्ग पर है विट्ठल आश्रम। यहीं रहते थे पर्वतीय गांधी इंद्रमणि बडोनी। उनके भांजे और वरिष्ठ पत्रकार सुधाकर भट्ट बताते हैं कि 1970 के दषक की शुरूआत में विट्ठल आश्रम नामक स्थान पर बडोनीजी ने थोड़ी सी जगह खरीदी थी। यहीं एक छोटा सा मकान उन्होंने रहने के लिए बनवाया। मकान क्या कुटिया ही थी। एकदम साधारण। किसी ऋषि सरीखा एकदम साधारण जीवन वे व्यतीत करते थे। पूरे उत्तराखंड आंदोलन के दौर में विट्ठल आश्रम स्थित उनका आवास आंदोलनकारियों की आवाजाही का बड़ा केंद्र होता था। ताउम्र पहाड़ और पर्वतीय राज्य के लिए संघर्षरत और संकल्पबद्ध रहे पर्वतीय गांधी इंद्रमणि बडोनी अपने सपनों के उत्तराखंड को आकार लेते नहीं देख पाए। अलग उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) राज्य के सृजन से सिर्फ सालभर पहले 18 अगस्त 1999 की रात होते-होते उत्तराखंड के इस स्वप्नदृष्टा-इस ‘राजनीतिक ऋषि’ ने अंतिम सांस ली। जिसने भी सुना, वह अवाक रह गया। हजारों आंखें खुद-ब-खुद नम हो गईं। कुछ साल बाद उनकी पत्नी सुरजी देवी का भी भीड़भाड़ से दूर यहां रहते निधन हो गया। इन दिनों बडोनीजी के छोटे भाई का परिवार यहां रहता है।

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